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जो नहीं कहा गया

नवनीत मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1357
आईएसबीएन :81-263-1092-8

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प्रस्तुत है जो नहीं कहा गया...

Jo Nahi Kaha Gaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जो नहीं कहा गया आज के समय की तल्ख सच्चाइयाँ हैं साथ ही व्यक्ति के विभिन्न मनोभावों का रोचक विश्लेषण व्यंजित है।

बलिहारी गुरु आपनो

‘आपके कालीन देखेंगे किसी दिन, आज तो ये पाँव कीचड़ में सने हैं।’ मनमीत ने कमरे की चौखट पर खड़े होकर दुष्यन्त कुमार का शेर पढ़ा, हाथ जोड़कर नमस्कार किया और कमरे में बिछे कालीन और सचमुच कीचड़ में सने अपने सैण्डिलों को संकोच के साथ देखा।
काफी देर बरस चुकने के बाद पानी जरा देर पहले थमा था। घर के ठीक सामने भैंसों की खटाल थी जहाँ से पानी के साथ बह-बह कर गोबर सड़क तक आ गया था। सकड़ी खेलने के-से अन्दाज में उछल-उछलकर चलने के बावजूद मनमीत के सैण्डिलों में गोबर लग ही गया था। उन्होंने चारदीवारी में घुसने से पहले पैर पटककर सैण्डिलों को साफ करना चाहा, लेकिन वह पानी की धार डाले बिना साफ होने वाले नहीं थे। मनमीत ने सैण्डिलों के बक्सुए खोले।
‘‘अरे-अरे, क्या करते हैं  गुरु-भाई के पैरों का तो कीचड़ भी चन्दन के समान है। चले आइए निःसंकोच ऐसे ही चले आइए।’’ सुशिक्षित जी ने अपनी दोनों बाँहें फैलाकर मनमीत का स्वागत किया।

सुशिक्षित जी ने गुरु-भाई से कहा, तो मनमीत की आँखों के सामने चालीस-बयालीस वर्ष पुराने दिन घूम गये। पिता के प्रमुख शिष्यों में गिने जाने वाले सुशिक्षित जी का लगभग रोज घर आना, पिता के साथ होने वाली लम्बी-लम्बी बैठकों में साहित्य को लेकर उठने वाली जिज्ञासाएँ, चर्चाएँ..फिर अचानक पिता की मृत्यु और उसके बाद सम्पर्क का लम्बे समय के लिए टूट जाना...कुछ सम्पर्कों की साँसें तब भी हल्की-हल्की चल रही होती हैं, जबकि देखने में वह सम्पर्क कब के मर गये-से मालूम पड़ने लगते हैं। और सुशिक्षित जी तो मनमीत से यदा-कदा समारोहों में बराबर मिलते रहे थे इसलिए ऐसी कोई आशंका नहीं थी कि वह मनमीत को पहचानेंगे या नहीं, लेकिन इतनी हार्दिकता की उम्मीद तो मनमीत को नहीं ही थी...

मनमीत ने दरवाजे पर ही खड़े-खड़े देखा कि सुशिक्षित जी के बहुत बड़े हो जाने और मान्य हो जाने का पता देते प्रशस्ति और सम्मान-पत्रों से कमरे की दीवारें दीखनी लगभग बन्द-सी हो गयी हैं। मढ़े हुए सम्मान-पत्रों के काफी दूर होने के कारण कत्थई और सुनहरे बॉर्डर तो दीख रहे थे लेकिन इबारत पढ़ने में नहीं आ रही थी। कमरे में एक तरफ शीशे का एक बड़ा-सा केस था, जिसमें देवी-देवताओं की कुछ मूर्तियाँ और शायद बच्चों का मन रखने के लिए, उनकी बनायी हुई उमर खय्याम की सुराही और जाम लिए कलाकृति सजी हुई थी। सामने कुछ ऊँचाई पर एक घड़ी टँगी थी जिसकी बैट्री कमजोर पड़ गयी थी और सेकण्ड की लाल सूई अपनी जगह पर जरा-जरा-सी हिलकर रह जाती थी। घड़ी के नीचे सुशिक्षित जी की लिखी लगभग एक दर्जन किताबों के आवरण पृष्ठ एक गत्ते पर प्रदर्शित किये गये थे, जिनमें से कुछ की पिनें निकल गयीं थीं और वह जगह-जगह से लटक गये थे। दीवार पर एक किनारे एक रंगीन चित्र लटका हुआ था जिसमें सुशिक्षित जी प्रधानमन्त्री से अपनी काव्य कृति के लिए सम्मान प्राप्त करते हुए दिखाई दे रहे थे। चित्र के ठीक नीचे एक मेज पर टीवी रखा था और टीवी के ऊपर वाग्देवी की एक लयात्मक मूर्ति के अलावा कई और चीजें सजी हुई थीं। सारा कमरा बेपरवाही का बाना धारण किये किसी विदेह की तपःस्थली-जैसा लगता था। कालीन के ऊपर रखी छोटी मेज के पास एक दीवान पड़ा था और उस पर बैठे सुशिक्षित जी बाँहें फैलाये मनमीत को अपने पास बुला रहे थे।

मनमीत ने सैण्डिल उतारकर दरवाजे के बाहर ही छोड़ दिये और सुशिक्षित जी की ओर बढ़े।
‘‘आइए, बिराजिए ’’ सुशिक्षित जी ने मनमीत को बाँहों से पकड़कर पास के सोफे पर बिठाया और खुद प्लेट में रखा सेब उठाकर काटने लगे।
‘‘कभी जब घर पर आपकी माता जी और बहिनों में से कोई नहीं होता था तब गुरुदेव स्वयं हम लोगों को पान लगाकर खिलाते थे। आपके यहाँ का पान हम लोगों के लिए मान का पान नहीं, गुरुदेव का प्रसाद हुआ करता था। तो, पान तो नहीं, मैं आपको अपने हाथ से काटकर सेब जरूर खिला सकता हूँ’’ कहते हुए उन्होंने सेब की एक फाँक मनमीत की ओर बढ़ायी और हँसे। सुशिक्षित जी के गाल काफी उभरे हुए, गुलगुले-से थे और हँसने के समय उनके गाल उनके पपोटों को लगभग ढँक लेते थे, जिसकी वजह से उनकी आँखें हँसते समय और भी छोटी हो जाती थीं।
‘‘कहिए, किस हेतु कष्ट किया’’ सुशिक्षित जी ने सेब की एक और फाँक बढ़ाते हुए पूछा, जिसे मनमीत ने हाथ जोड़कर मना कर दिया।

‘‘आपका एक बेटा है और मेरी एक बेटी,’’ मनमीत ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया और सुशिक्षित जी के पैर पर अपना एक हाथ रख दिया।
‘‘भई वाह। यह तो एक बहुत बड़े स्वप्न के साकार होने जैसा प्रस्ताव है। गुरुदेव की पौत्री मेरे घर में पुत्रवधू बनकर आये, इससे बड़ी कोई इच्छा तो मैं कर ही नहीं सकता था। रामजी ने चाहा तो इसके सम्पन्न होने में कोई बाधा नहीं होगी।’’
सुशिक्षित जी ने आह्लादित स्वर में कहा तो मनमीत को सहसा अपने कानों पर विश्वास करना मुश्किल हो गया।
‘‘तो अब मुझे क्या करना होगा’’ अपनी फूट पड़ रही प्रसन्नता को दबाते हुए मनमीत ने पूछा।
‘‘अब करना क्या है बेटी का एक चित्र और उसकी कुण्डली भेज दीजिए, उस पर विचार करवा लेते हैं। कोई ज्योतिषीय बाधा नहीं होगी तो फिर और कोई बाधा नहीं है,’’ सुशिक्षित जी ने कहा तो मनमीत को उन पिताओं का स्मरण हो आया जो अपनी बेटियों के लिए वर खोजते-खोजते अधमरे-से हो जाते हैं फिर भी सफलता उनसे कोसों दूर भागती रहती है। किसी अनजान घर में बेटी को भेजते हुए जिसके मन आशंका से काँपते रहते हैं जब तक कि बेटी एक बार लौटकर बता नहीं देती कि सबकुछ ठीक-ठाक है। मनमीत तो अपनी बेटी के लिए पहली बार कहीं बात चलाने आये थे और उन्हें सफलता मिल गयी थी और सुशिक्षित जी के व्यवहार ने तो उन्हें खरीद लिया था।
‘‘आप जैसे संवेदनशील व्यक्ति के परिवार में मेरी बेटी सुख से रहेगी।’’ मनमीत ने भावातिरेक में भरभरा आये गले से कहा और सुशिक्षित जी के हाथ को जोर से पकड़ लिया।

‘‘विधि कुलाल कीन्हें काँचे घट, ते तुम आनि पकायो...।’’ गुरुदेव का स्मरण हो आया, उन्होंने मनमीत की बात शायद सुन ली थी, लेकिन जैसे अपने आप में ही मगन होकर उन्होंने कहा।
‘‘इसका क्या अर्थ हुआ’’ मनमीत ने जिज्ञासा प्रकट की।
‘‘सूर-सागर का पद है। गुरुदेव ने इसका अर्थ बताया था कि गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हमें तो विधि के कुम्हार ने प्रेम की मिट्टी के कच्चे घड़े जैसा बनाया था, लेकिन तुम्हारे सन्देश में जो ताप है उसमें तपकर वह कच्चे घड़े पक्के हो गये हैं अर्थात् अब हम कृष्ण-प्रेम में और भी पक्की हो गयी हैं...’’
‘‘वाह,’’ मनमीत के मुँह से निकला।
‘‘मैं गुरुदेव का मानस पुत्र था। वह जब इस पद का अर्थ समझा रहे थे तब मैं उसका एक अलग ही भाष्य कर रहा था,’’ सुशिक्षित जी ने कुछ विनोद के-से भाव से कहा।
‘‘क्या’’
‘‘विधि ने मेरे भीतर संवेदनशीलता, उदारता और मनुष्यता के जो बड़े मूल्य कच्ची मिट्टी के रूप में दिये थे, गुरुदेव के सान्निध्य की आँच में वह पक गये । सचमुच मैं उनके साथ रहकर संवेदनशील, उदारमना और मनुष्य बना।’’
सुशिक्षित जी ने कहा और यह अहसास होते ही वे गुरुदेव के व्याज से अपनी ही प्रशंसा कर बैठे हैं, संकोच से सिर झुका लिया।

‘‘मुझे और क्या करना होगा’’ मनमीत ने सुशिक्षित जी के संकोच को पहचाना और उन्हें इससे उबारने के लिए पूछा।
‘‘एक कुलशील बेटी मेरे घर की बहू बनेगी, इसके बाद और क्या’’ उन्होंने कहा और मनमीत के कन्धे पर अपना एक हाथ रख दिया।
‘‘तो मैं अब चलूँ’’ मनमीत ने पैर छूने के लिए सुशिक्षित जी की तरफ हाथ बढ़ाया।
‘‘शुभस्य शीघ्रम्। दोनों चीजें पहुँचते ही भेज दीजिएगा।’’ उन्होंने मनमीत के पैर की ओर बढ़े हाथ को अपने हाथ में ले लिया और हाथ मिलाने के अन्दाज में कुछ देर पकड़े रहे।
तभी बाहर कोई मोटरसाइकिल आकर बन्द हुई।
‘‘कितना अच्छा संयोग है, बेटा भी आ गया।’’ सुशिक्षित जी मनमीत को साथ लेकर कमरे से बाहर निकले। बेटा बाहर बराण्डे में मोटरसाइकिल खड़ी कर रहा था।
सामने एक सुदर्शन युवक खड़ा था। गोरा रंग, सुन्दर मुख, चेहरे पर स्वास्थ्य की लालिमा, आँखों में अपनी ओर खींचने वाली चमक, नीली जींस पर ढीली-सी कमीज, हाथ में सेलुलर फोन...

‘‘ये मेरे गुरुदेव के सुपुत्र हैं, इनको प्रणाम करो’’, सुशिक्षित जी ने बेटे से कहा तो उसने आगे बढ़कर मनमीत के पैर छुए।
सुशिक्षित जी का बेटा भीतर चला गया, लेकिन मनमीत के लिए वह अभी वहीं खड़ा था जैसे उनकी बेटी के साथ। उनका मन हो आया कि वह सुशिक्षित जी से कहें कि आपका बेटा और मेरी बेटी एक-दूसरे के लिए बने हैं। उनका जी किया वह बच्चों की तरह मचल जाएँ और सुशिक्षित जी से कहें कि जन्मकुण्डली मिलाने की औपचारिकता में पड़े बिना वह इस रिश्ते के लिए हाँ कह दें। मनमीत, सुशिक्षित जी के बेटे को देखकर ललचा से उठे थे।

मनमीत के पिता विश्वविद्यालय में अध्यापक थे। वह साहित्य की एक ऐसी परम्परा से जुड़े हुए थे जिसके उल्लेख के बगैर साहित्य का इतिहास पूरा ही नहीं होता था। मनमीत के पिता एक स्वाभिमानी, संवेदनशील और विद्वान अध्यापक थे, जिनको दिवंगत हुए चालीस वर्ष बीत चुके थे, लेकिन उनके विद्यार्थी उन्हें ऐसे याद करते जैसे अभी कल-परसों ही वह उनके बीच से चले गये हों। उनके अध्यापन की बड़ी ख्याति थी और उनकी कक्षा में अकसर वे छात्र भी आकर बैठते जिनका साहित्य विषय नहीं होता था। पचास-पचपन विद्यार्थियों की क्लास में कभी-कभी दो-ढाई सौ विद्यार्थी ठँस कर बैठते और उनका व्याख्यान सुनते...घर पर आये दिन साहित्यिक गोष्ठियाँ होतीं, रचना-पाठ होता, बड़े-बड़े साहित्यकार पधारते और घर-परिवार से लगाकर मोहल्ले तक का वातावरण साहित्य की सुगन्घ से मह-मह करता रहता। सुशिक्षित जी तब शायद बी.ए. के छात्र थे जब मनमीत ने उन्हें ऐसी ही किसी गोष्ठी में पहली बार देखा था। मनमीत के पिता दिल के मरीज थे। उनको दो दौरे पड़ चुके थे, लेकिन डॉक्टरों की सलाह के बावजूद वह छुट्टी लेकर आराम इसलिए नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि कोर्स पूरा नहीं हुआ था और छुट्टी ले लेने से लड़कों का नुकसान हो जाता। उन्हें एक दौरा क्लास में पढ़ाते समय पड़ा था, जिसे वह घर में सबसे छुपा ले गये थे, लेकिन तीसरा दौरा उन्हें विश्वविद्यालय जाते समय रास्ते में रिक्शे पर पड़ा, जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी।

नौवीं क्लास में पढ़ रहे मनमीत, पिता की तबीयत खराब होने की खबर मिलने पर स्कूल छोड़कर घर पहुँचे, तो सुशिक्षित जी को आँसू पोंछते घर के सामने सड़क पर खड़े पाया। अपने दोनों खाली हाथ हिलाते हुए उन्होंने इशारे से बताया था कि सबकुछ खत्म हो गया है।

छाँव नहीं रही तो पथिकों ने भी अपने रास्ते बदल लिये। जहाँ सवेरे से शाम तक लोगों का ताँता लगा रहता था, वहाँ सन्नाटा पसरा रहने लगा। भीतर-भीतर पछाड़ खाती लेकिन ऊपर से संयम की प्रतिमूर्ति-सी दीखती मनमीत की माँ की आँखों के सामने थीं दो अनब्याही बेटियाँ और तीन पढ़ाई कर रहे बेटे और उँगलियों में थी पति के नाम की, सुगन्ध देती यशबेल...उत्तराधिकार सम्बन्धी औपचारिकताओं के पूरा होने तक परिवार के सामने घोर आर्थिक संकट था, जिसका किसी भी तरह से मुकाबला करना था। सगे कहे जाने वाले नाते-रिश्तेदार दूर-ही-दूर रहते कि कहीं बेसहारा हो गये परिवार का जुआ उनके कन्धों पर न आ पड़े। मनमीत ने रेडियो-नाटकों में भाग लेना और नाटक लिखना शुरू किया। यह कोई बड़ी और नियमित आमदनी तो नहीं थी, लेकिन इससे मनमीत के भविष्य की रूपरेखा तैयार हुई। उन्होंने रेडियो को ही अपनी जीविका का साधन बनाने का निश्चय किया।

समय की तेज भँवर में मनमीत, अपने मूल से टूटकर बह आये एक अनगढ़ पत्थर की तरह जा पड़े थे जहाँ सुख-दुःख, विश्वास, अविश्वास, ईमानदारी-छल, उदारता और क्षुद्रताओं की धाराएँ उनके ऊपर से गुजर कर उनके अनगढ़पन को समाप्त करती रहीं। धीरे-धीरे वह सहज विश्वासी, ईमानदार, संवेदनशील और परदुःखकातर के सुडौल पत्थर में बदलते जा रहे थे। मनमीत ने विरासत में सहृदयता, संकट के समय सबके साथ खड़े होने की निष्कम्प भावना और हमेशा सकारात्मक सोचने की जो इच्छा-शक्ति पायी थी वह उनके लिए पाथेय बन रही थी। अभी तक मौज-मस्ती की बेफिक्र जिन्दगी जीने वाले मनमीत दसवीं क्लास तक पहुँचते-पहुँचते मन से एक धीर-गम्भीर बुजुर्ग जैसे बन गये थे। लोग उन्हें अपने पिता की विरासत का वास्तविक वाहक कहने लगे थे। रेडियो में नौकरी पक्की होने के बाद उनकी शादी हुई, बच्चे हुए और अब जब बेटी सयानी हुई तो मनमीत ने पाया कि अपनी खर्चीली आदत और लापरवाही के चलते उन्होंने बेटी को विदा करने की कोई तैयारी नहीं की है। सुशिक्षित जी से हुई बातचीत के बाद उन्होंने हिसाब लगाया तो पाया कि पी.एफ से कर्ज और सारे स्त्रोतों से मिला-जुलाकर उनके पास करीब तीन लाख रुपये तो नकद हो ही जाएँगे, बाकी सारा कुछ वह उधार खाते में करेंगे और नौकरी के शेष वर्षों में किस्तें अदा करते रहेंगे। फिर उनको लगा कि सुशिक्षित जी ने जिस तरह ‘गुरु-भाई’ और ‘कुलशील कन्या’ को सबसे ऊपर रखा है, उससे हताश होने की वैसी कोई स्थिति नहीं है, जैसी वह समझ रहे थे।

कुण्डली मिल गयी थी और पण्डित जी ने विवाह को सर्वोत्तम बताया था।
‘‘साहित्य का जो संस्कार मुझे मिला, वह गुरुदेव के चरणों का प्रताप है। सूर और प्रसाद के तो वह विशेषज्ञ ही थे, लेकिन उनका असली कमाल तो रीतिकाल पढ़ाते समय देखने को मिलता था कि क्या मजाल कि लड़के या लड़कियों में से किसी को भी कभी निगाहें झुकानी पड़ी हों और मजे की बात यह कि व्याख्या में कोई कमी नहीं।’’ सुशिक्षित जी मनमीत को फिर उन्हीं रास्तों पर ले चले जहाँ वह चालीस वर्षों पहले चल चुके थे और उन रास्तों से निकलकर अब खुद गुरुदेव के स्थान पर स्थापित हो चुके थे।
‘‘मैं तो जब तक उनसे कुछ ले सकने लायक बन पाता, तब तक वह चले ही गये।’’ मनमीत के मन में एक बहुत पुराना दर्द फिर ताजा हो आया।

‘‘वैसे तो आप उनके बेटे हैं, लेकिन भाग्य तो मेरा ही सराहा जाएगा जो गुरुदेव का इतना सान्निध्य मुझे मिला। अकसर गुरुदेव बहुत याद आते हैं। कभी जहाँ वह खड़े होकर पढ़ाया करते थे, अब मैं खड़ा होता हूँ तो मन हो आता है कि कहीं से गुरुदेव मिलते तो उनसे पूछता कि मुझे कुछ आता-जाता भी है या नहीं...वह कहा करते थे कि साहित्य से संवेदना का परिष्कार होता है। और मैं तुम्हें बताऊँ मनमीत, मैं जैसे-जैसे साहित्य के सागर में गहरे पैठता गया, मैंने पाया कि मेरे मन का सारा दारिद्र्य दूर होता गया। मेरे जीवन जीने का सारा ढंग ही बदलता गया। और सच पूछो, और जरा-सा ध्यान दो तो पाओगे कि कहीं कुछ है नहीं, सारा कुछ कितना बड़ा भ्रम है कि हमें ये भी मिल जाए-वो भी मिल जाए..और आदमी कैसा भाग रहा है इन्हीं बेजान वस्तुओं के पीछे। ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा’ के जीवन-दर्शन ने मुझे जिस तरह अपनाया है, वह मैं सिर्फ अनुभव कर सकता हूँ।’’ सुशिक्षित जी ने कहा।

‘‘जैसे कहा जाए कि, बाजार से गुजरा हूँ खरीददार नहीं हूँ—जैसा कुछ भाव’’ मनमीत ने यह जताने के लिए कि त्येन त्यक्तेन भुंजीथा का अर्थ वह समझ सकता है, कहा।
‘‘ठीक कहा आपने। गुरुदेव में भी यह बहुत बड़ा गुण था कि वह गूढ़-से-गूढ़ बात को सहज रूप में आप तक पहुँचाने का कौशल रखते थे। वह कहा करते थे कि इस कठिन दुनिया में सहज बने रहना सबसे मुश्किल काम है, ’’ उन्होंने कागज का एक पुलिन्दा खोलते हुए कहा।
‘‘जी,’’ मनमीत पिता की कही गयी बातों को सुशिक्षित जी के माध्यम से पाकर अभिभूत थे।

‘‘जन्म-कुण्डली तो बहुत अच्छी मिली है। वैसे उस दिन मैंने आपके परिवार को देखा, बहुत अच्छा लगा। आपकी बेटी तो इतनी सौम्य और सुसंस्कृत है कि देखकर ही अनुमान लग जाता है कि यह किस परिवार की होगी। वो खलील जिब्रान ने कहा है न कि मैंने एक पुरुष को देखा और उसके पूर्वजों को देख लिया जिन्हें इस संसार से विदा हुए अर्सा गुजर चुका था और मैंने एक स्त्री को देखा और उसकी सन्तानों को देख लिया जिनका अभी कहीं पता तक नहीं था। तो, आपकी बेटी को देखकर खलील जिब्रान की वह उक्ति याद आ गयी थी,’’ सुशिक्षित जी ने कहा और मनमीत के हाथ पर अपना एक हाथ रख दिया।
‘‘अच्छा, मैं देखता था कि आप पिता जी के साथ लगभग रोज शाम को टहलने जाया करते थे, कभी वह हम लोगों के बारे में या घर-परिवार के बारे में कोई बात करते थे’’ मनमीत का मन अपने परिवार या अपनी बेटी की प्रशंसा सुनने में नहीं रम रहा था। उनके लिए सुशिक्षित जी किसी ‘प्लेंचेट’ जैसे हो गये थे, जिन पर वह अपने पिता की आत्मा बुलाना चाह रहे थे।

‘‘गुरुदेव से बहुत-सी बातें होती थीं। एक बार उन्होंने बताया था कि कैसे किसी के एक ताना दिये जाने पर वह गाँव की सारी सम्पत्ति और पूरी जमींदारी को लात मारकर चले आये थे। सन् 1936 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम. ए. करने के बाद कैसे उन्हें जातिगत राजनीति के चलते इलाहाबाद विश्वविद्यालय में नियुक्त नहीं होने दिया गया और कैसे उन्होंने अपने परिवार को पालने के लिए जूनियर स्कूल में पढ़ाया। उन्हें यह अहसास तो था कि वह अपने पीछे सम्पत्ति के नाम पर अपने बच्चों के लिए कुछ छोड़कर नहीं जाएँगे क्योंकि उनका अपना जीवन संघर्ष करते ही बीत गया,’’ बताते हुए सुशिक्षित जी की आँख कुछ उदास-सी हो आयीं।
‘‘अच्छा अब यह बताइए कि मुझे कैसे क्या करना है, ’’मनमीत ने विषयान्तर किया क्योंकि स्वर्गीय पिता और उनकी बातों से वातावरण बोझिल-सा होने लगा था।
‘‘देखिए भाई, न मेरी कोई काली कमाई है और न आपकी। हम दोनों आपस में सलाह-मशविरा करके एक-दूसरे को सहयोग करते हुए और एक-दूसरे की प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए इस कार्य को सम्पन्न कर लेंगे। लक्ष्मी और सरस्वती का वैर तो आप जानते ही हैं, लेकिन मैं मानता हूँ कि जहाँ सरस्वती का सचमुच वास होता है वहाँ लक्ष्मीजी बहुत उत्पात नहीं मचा पातीं। यह एक शुभ काम है, इसमें जो आपसे नहीं बन पड़ेगा, वह मैं कर दूँगा,’’ सुशिक्षित जी ने तनिक हँसी का पुट देते हुए इत्मीनान से कहा।

‘‘मैं अपनी क्षमता-भर, बल्कि अपनी क्षमता से कुछ आगे ही बढ़कर जो कुछ सम्भव होगा, करने से पीछे नहीं रहूँगा।’’ मनमीत ने अचानक अपने आप को ‘गुरु-भाई’ से हटकर ‘लड़की वाला’ की भूमिका में खड़े पाया।
‘‘अरे, ऐसा क्यों कह रहे हैं’’ कहते हुए सुशिक्षित जी ने मनमीत के जुड़े हुए हाथों को अपनी हथेलियों में बन्द कर लिया, ‘‘आप कल शाम आइए, सब लोग बैठ जाएँगे और सारी बातें तय कर ली जाएँगी।’’
अगले दिन हवा के परों पर सवार मनमीत जब सुशिक्षित जी के घर पहुँचे तो वह अपनी पत्नी के साथ कमरे में बैठे प्रतीक्षा ही कर रहे थे।

‘‘अरे भई घर की पुरखिन, कहाँ हो तुम बाहर आओ,’’ ‘‘उन्होंने मनमीत को देखते ही आवाज लगायी, जिसे सुनकर उनकी चौंतीस-पैंतीस साल की बेटी मिक्की कमरे में आयी और नमस्कार करके पिता के पास बैठ गयी।
‘‘अब सिलसिलेवार कार्यक्रम तय कर लिया जाए, ’’सुशिक्षित जी ने कहा और मिक्की की तरफ देखा।
‘‘तो, आपने क्या योजना बनायी है’’ मिक्की ने जैसे बैठक की कार्यवाही का संचालन अपने हाथ में लेते हुए पूछा।
‘‘अब मुझे तो इस बारे में कुछ पता नहीं है, घर में कोई बड़ा-बूढ़ा भी सलाह देने के लिए उपलब्ध नहीं है। आप लोग जैसा कहेंगे, वैसा होगा,’’ मनमीत ने कहा और सुशिक्षित जी की ओर समर्पण भाव से देखा।
‘‘गुरुदेव कहा करते थे कि लड़की चाहे जितनी छोटी हो वह अपने पिता की माँ बनने की क्षमता रखती है, और लड़का जितना छोटा हो वह अपनी उपस्थिति भर से अपनी बहिन का सहारा बन सकता है। तो मेरी बिटिया ही इस घर की पुरखिन है, बड़ी-बुजुर्ग है, मेरी अम्मा है,’’ कहते हुए सुशिक्षित जी ने मिक्की की पीठ पर हल्की-सी धौल जमायी, मिक्की ने हँसकर सिर झुका लिया।

‘‘तो आप बताइए,’’ सुशिक्षित जी ने बेटी को पुरखिन बताकर यह संकेत दे दिया था कि सारी बातें उनकी बेटी की सहमति से ही अन्तिम रूप से तय मानी जाएँगी। मनमीत मिक्की की तरफ उत्तर की प्रतीक्षा में देखने लगे।
‘‘कल आपके चले जाने के बाद हम सब गुरुदेव, आपके, आपके परिवार और आपकी बेटी के बारे में बहुत देर तक बातें करते रहे। मैंने तो यह प्रस्ताव रखा कि एक दिन पहले रात को दस-पन्द्रह लोग ट्रेन से रवाना होंगे, सवेरे आपके शहर पहुँच जाएँगे, दिन में शादी हो जाएगी और उसी रात वाली ट्रेन से वापस हो जाएँगे। लेकिन वो जो सामने बैठी हैं, उनका इकलौता दुलारा बेटा है, ये जो मेरे पास बैठी है इसका अकेला दुलारा भाई है...मेरा प्रस्ताव तो इन लोगों ने बुहारकर ऐसे किनारे कर दिया कि पूछो मत,’’सुशिक्षित जी ने हँसते हुए कहा।

सुशिक्षित जी के साथ उन्हीं की जैसी मुखाकृति वाली उनकी बेटी भी हँसी, जिससे उसकी आँखें भी छोटी हो गयीं, लेकिन पत्नी के पत्थर जैसे सख्त चेहरे पर मुस्कान की एक हल्की-सी लकीर भी नहीं उभरी।
‘‘फिर’’ मनमीत के सामने स्पष्ट नहीं हुआ कि अन्तिम निर्णय क्या हुआ।
‘‘फिर पंचों की यही राय हुई कि शादी आप यहीं आकर कीजिए। बारादरी बुक कर लीजिए। शायद एक दिन का दस हजार रुपये लेते हैं, लेकिन ‘शो’ बहुत ‘ग्रैण्ड’ हो जाता है,’’ सुशिक्षित जी ने कहा और नोट करते चलने के लिए एक नोट-बुक और पेन मनमीत की ओर बढ़ाया।

‘‘जी,’’ मनमीत ने बारादरी के प्रस्ताव पर धीमे से कहा और सोच में पड़ गये। उस शहर में उनको नौकरी करते बाईस साल हो गये थे। वहाँ उनका व्यापक परिचय-संसार था, जिसमें किसी भी चीज की व्यवस्था वह बगैर तुरन्त नकद भुगतान किये केवल सन्देश भेजकर कर सकते थे, लेकिन सुशिक्षित जी के शहर आकर सारी चीजें तुरन्त नकद भुगतान पर जुटाना उन्हें पहाड़ उठाने जैसा लग रहा था। वहाँ उन्होंने जिन चीजों के बहुत कम दामों में निपटा ले जाने की सोची थी, वह सारी योजना गड़बड़ा रही थी।
‘‘आप कुछ सोच रहे हैं मनमीत जी, ’’उसे चुप देख सुशिक्षित जी ने पूछा।
‘‘अपनी बेटी के विवाह के लिए मेरे मन में है कि शादी वसन्त पंचमी के दिन हो, पूरा पण्डाल पीले फूलों से सजाया जाय और शहनाई के धीमे सुर हवा में तैरते रहें,’’ वह कुछ ज्यादा भावुक हो गये हैं सोचकर उन्होंने आगे जोड़ा, ‘‘इस तरह की सारी व्यवस्था मैं वहाँ काफी आसानी और काफी सुविधाजनक ढंग से कर सकूँगा, ’’मनमीत ने उधार की अपनी व्यवस्था को संकोच के कारण किनारे कर दिया और इस कोशिश में अपने ही शहर से विवाह करने के अपने तर्क और पक्ष को कमजोर कर बैठे थे।

‘‘अरे भई, पीले फूलों की सजावट की बात है न तो फूल तो बारादरी में भी सजाये जा सकते हैं। बनारस से बुलवा लीजिएगा और सजावट करने वाले कारीगर। शादी यहीं से कीजिए,’’सुशिक्षित जी ने अन्तिम रूप से कहा और चुप हो गये।
‘‘अब आप बरीक्षा के बारे में नोट कर लीजिए,’’ शादी कहाँ से होगी इस बात को तय हुआ मानकर, मिन्नी ने कहा और हाथ में पकड़ा हुआ एक कागज सीधा किया।
‘‘जी,’’ मनमीत ने लिखने के लिए नोटबुक और पेन सँभाला।

‘‘एक गिन्नी, एक अँगूठी, रोली रखने के लिए एक चाँदी की तश्तरी, सिल्क की तीन साड़ियाँ, फल और मिठाइयाँ, वर की अटैची में एक सूट, पच्चीस हजार रुपये और पाँच कपड़े।’’ मिक्की ने पढ़कर सुनाया, मनमीत नोट करते गये।
‘‘ अच्छा ये पाँच कपड़े रखने का कार्यक्रम अभी चालू है धन्य हो तुम लोग भी। दुनिया कहाँ से कहाँ जा पहुँची और तुम लोग अभी,’’ सुशिक्षित जी ने अपने माथे को अँगुलियों से ठोंकते हुए कहा, ‘‘लिखिए मनमीत जी, लिखिए। नहीं तो जरा से में इनका सगुन बिगड़ जाता है।
‘‘पहले आप हमारे यहाँ बरीक्षा करने आएँगे फिर हम आपके यहाँ गोद भराई की रस्म करने आएँगे।’’ मिक्की ने कागज पलटा।
एक बार कभी बातों-बातों में नानी ने कहा था कि बरीक्षा और गोद भराई के मामले में लड़के वाले बड़ी चालाकी से काम लेते हैं। बरीक्षा में जो फल और मिठाइयाँ लड़की वाले दे जाते हैं उन्हीं को लड़के वाले गोद भराई में वापस लड़की वालों के घर पहुँचा देते हैं और अपना खर्च बचा ले जाते हैं। उन्हें याद है कि नानी की यह बात सुनकर वह मन ही मन भुनभुनाते हुए सोचते रहे थे कि इन बूढ़े दिमागों में ऐसी सड़ी बातें ही आ सकती हैं।

‘‘पहले तो शायद गोद भराई होती है’’ नानी की उसी बात को जाँचने के लिए मनमीत ने सुशिक्षित जी से कहा।
‘‘नहीं-नहीं, पहले तो बरीक्षा ही होती है,’’ सुशिक्षित जी और उनकी बेटी ने एक साथ झपटती हुई-सी आवाज में जवाब दिया।
‘‘जी,’’ मनमीत ने कहा।

‘‘गोद भराई करने हमारी तरफ से चालीस लोग आपके घर आएँगे। इनमें से पच्चीस लोगों की विदाई विक्टोरिया वाले चाँदी के सिक्कों से होगी और पन्द्रह लोगों की छोटे चाँदी के सिक्के जो आते हैं, उनसे होगी,’’ मिक्की ने कहा और अपने पिता की ओर देखा, जिन्होंने सहमति में अपना सिर जरा-सा हिलाया।
‘‘ और हाँ, लड़के के लिए हीरे की अँगूठी। हम आपकी बेटी के लिए बनवाएँगे और आप वर के लिए,’’ मिक्की ने इस तरह से कहा जैसे यह बात छूटी जा रही थी।
‘‘लेकिन मैंने तो सुना है कि हीरा सबको सूट नहीं करता,’’ मनमीत ने शंका प्रकट की।
‘‘हीरे छोटे-छोटे होंगे,’’ सुशिक्षित जी ने तुरन्त समाधान किया।
‘‘तो बरीक्षा हो गयी, गोद भराई हो गयी—अब तिलक,’’ मिक्की ने उँगलियों के पोर पर गिनते हुए कहा।
‘‘जी ’’
‘‘तिलक लेकर आने वालों में आपके यहाँ से छह-सात लोग तो हो ही जाएँगे,’’ मिक्की ने सवाल किया।
‘‘नहीं, मेरे विचार से दस लोगों से कम क्या होंगे। क्यों मनमीत जी’’ सुशिक्षित जी ने उदारतापूर्वक संख्या बढ़ायी।
‘‘तो, नोट कर लीजिए। तिलक में आप वर का सूट, पिता का सूट, दो दामादों के सूट, एक मामा और तीन भाइयों के सूट-कुल आठ सूट लेकर आएँगे। दो ताऊ और दो फूफाओं के लिए धोती और कुर्ते के दो-दो सेट, पैण्ट और कमीज के बारह सेट, दो नौकरों के लिए पैण्ट और कमीज के सेट और तीन नातिनों के लिए स्कर्ट और फ्राक सूट।’’ मिक्की साँस लेने के लिए रुकी।
‘‘आपने लिखाया तीन भाइयों के लिए सूट,’’ मनमीत संकोच के साथ कह सके।
‘‘तीन मेरे चचेरे भाई भी तो हैं,’’ मिक्की ने निःसंकोच बताया।

‘‘तुम लोगों का यह प्रपंच जाने अभी कितनी सदियों तक चलता रहेगा। लेकिन ये भी क्या करें मनमीत जी, हमें तो इन बातों में रत्ती भर तत्त्व नजर नहीं आता, लेकिन होता यह है कि शादी-ब्याह के मौके पर इकट्ठा होने वाले लोगों की तुनकमिजाजी नहीं सही जाती। जरा-सी कोई कमी रह जाए तो झेलिए उनकी बड़बड़। मैंने तो गुरुदेव को देखा था मनमीत जी, उनके पास एक सूट और दो काम्बीनेशन थे। लेकिन वह कुछ इस ढंग से उन्हें पहनते थे कि लगता था कि न जाने कितने गर्म कपड़े हैं उनके पास। अरे, सूट डाल लेने से कोई बड़ा नहीं हो जाता, मगर अब तो सबको बड़ा बनने के लिए सूट ही चाहिए। क्या कहा जाए और किससे कहा जाए, पहनिए सूट,’’ सुशिक्षित जी ने अपनी लाचारी बतायी।
‘‘अब आगे नोट कीजिए। वर के लिए एक सोने की चेन, चाँदी का एक थाल और चाँदी की एक तश्तरी,’’ मिक्की ने कहा।
‘‘चाँदी की एक तश्तरी तो आप शायद बरीक्षा में लिखवा चुकी हैं,’’ मनमीत ने नोटबुक के पन्ने पलटते हुए कहा।

‘‘वो तो बरीक्षा के समय रोली रखने के लिए थी। तिलक के दिन क्या उसी में रोली रखी जाएगी’’ मिक्की के चेहरे पर मनमीत को नासमझ समझने जैसा भाव उभरा। उसने अपने पिता की ओर देखा जिन्होंने हल्की मुस्कान के साथ बेटी के भाव का समर्थन किया, ‘‘तो चाँदी की एक तश्तरी, चाँदी का नारियल, चाँदी की पाँच सुपारियाँ, सफेद टेरीकाट का एक थान जिस पर कन्या की हथेलियों की छाप होगी, पाँच तरह की मिठाइयाँ पाँच-पाँच किलो, पाँच तरह के फल पाँच-पाँच किलो, पाँच तरह के मेवे पाँच-पाँच किलो और बाँटने के लिए दस किलो लड्डू, ’’ मिक्की ने इमला बोला और कागज पलटा।
‘‘और पैसा कितना’’ मनमीत ने धीमे से पूछा।
‘‘इसमें एक लिखा है पापा,’’ मिक्की ने एक बार कागज को आँखें गड़ाकर देखा और फिर जिज्ञासु और मासूम निगाहों से अपने पिता को देखते हुए पूछा जैसे समझ न पा रही हो कि इस एक का क्या मतलब हो सकता है।
‘‘देखूँ,’’ सुशिक्षित जी ने मिक्की के हाथ से कागज लिया, कुर्ते की जेब से निकालकर चश्मा लगाया, कुछ क्षण गौर से कागज को देखने के बाद उसे मिक्की को लौटाते हुए कहा, ‘‘एक लाख।’’

मनमीत ने नोट कर लिया।
‘‘अब शादी,’’ मिक्की ने कहा।
‘‘बधाई हो मनमीत जी,’’ सुशिक्षित जी ने हँसते हुए कहा।
‘‘आपको भी,’’ मनमीत ने बुझी-सी आवाज में कहा।
‘‘पप्पू मारुति जेन में इण्टरेस्टेड है,’’ मिक्की ने कहा और अपने पापा की ओर देखा।
‘‘अच्छा तभी उस दिन सपूत कह रहे थे अपनी माँ से कि एट हण्ड्रेड तो अब पापा जैसी हो गयी है। मैं तो समझा ही नहीं। आजकल के लड़कों से तो भगवान बचाएँ, देख रहे हैं मनमीत जी,’’ सुशिक्षित जी ने हँसते हुए कहा।
‘‘सोनी का एक टीवी, बी.पी.एल. का बड़े साइज़ का चार दरवाजों वाला फ्रिज और सोनी का सीडी प्लेयर चाहिए पप्पू को। आप चाहें तो ये चीजें दे दीजिए या इनका पैसा, जो आसान पड़े,’’ मिक्की ने मनमीत की मुश्किल को आसान करते हुए सुझाव दिया।
‘‘आपके बाराती कितने होंगे’’ मनमीत ने हिम्मत करके पूछा।

‘‘ये मेरा डिपार्टमेण्ट था सो इस संबंध में मैंने बड़ी निर्ममता से काम लिया। मेरे परिचितों का दायरा कितना बड़ा है आप तो जानते ही हैं, मैंने भी गुरुदेव की तरह सिर्फ आदमी ही कमाये हैं, तो हिसाब लगाया तो बारातियों की संख्या हुई जा रही थी छह सौ-सात सौ। लेकिन मैंने कहा कि यह संख्या ढाई सौ से तीन सौ के बीच ही रहनी चाहिए। तो बस, इतनी ही समझ लीजिए,’’ सुशिक्षित जी ने बताया।
‘‘लेकिन पापा, सौ लोग तो अकेले पप्पू के ही हो जाएँगे,’’ मिक्की ने चिन्ता-सी प्रकट की।
‘‘नहीं, मैं जानता हूँ कि विवाह के बाद मुझे हजारों लोगों के ताने सुनने पड़ेंगे लेकिन इस बारे में अब कोई विवाद नहीं। जो निर्णय मैंने ले लिया, वह अन्तिम है,’’ सुशिक्षित जी ने न्याय दण्ड अपने हाथ में लेते हुए अन्तिम निर्णय सुना दिया।
‘‘लेकिन पापा,’’ मिक्की ने फिर कुछ कहना चाहा।
‘‘ नो  एन ओ-नो,’’ सुशिक्षित जी ने अपनी तर्जनी से हवा में नो के हिज्जे बनाते हुए कहा,’’ तुम शायद जानती नहीं हो कि मैं किस गुरु का शिष्य हूँ। गुरुदेव भी जब एक बार निर्णय लेते थे तो उन्हें डिगा पाना असम्भव होता था। एक बार ऐसा ही हुआ,’’ सुशिक्षित जी ने गुरुदेव का कोई संस्मरण फिर बताना शुरू किया।
‘‘अब नोट कर लीजिए बरतौनी,’’ मिक्की ने उनकी बात को बीच में ही काटकर आगे बढ़ते हुए कहा।
‘‘अच्छा हाँ, बरतौनी तो अभी बाकी ही है। इसी सबको देखकर लगता है कि दुनिया कहीं नहीं पहुँची है, वह अब भी वहीं है जहाँ सदियों पहले थी,’’ सुशिक्षित जी भी गुरुदेव का संस्मरण भूल गये और माथ

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